ग़ज़ल # 4

ताज़ा ग़ज़ल....

भले हो संगे-मरमर का मगर अच्छा नहीं लगता ।
हों जिसमें लोग पत्थर के वो घर अच्छा नहीं लगता ।

बशर को ही जो अब देखो बशर अच्छा नहीं लगता ।
हरिक सू बेयक़ीनी का ये डर अच्छा नहीं लगता ।

हो दौलत लाख घर में है मगर रौनक़ तो बच्चों से ,
बिना पत्तों के भी कोई शजर अच्छा नहीं लगता ।

ज़रूरी है हसीं कोई तुम्हारा हमसफ़र भी हो ,
मुहब्बत का कभी तन्हा सफ़र अच्छा नहीं लगता ।

भुलाकर ग़म तुम अपने यार थोड़ा मुस्कुराओ तो ,
ये चेह्रा फूल सा अश्क़ों से तर अच्छा नहीं लगता ।

ज़रूरी मुद्दए भी तुम हँसी में टाल देते हो ,
किसी को भी तुम्हारा ये हुनर अच्छा नहीं लगता ।

गिनाए लाख सोशल मीडिया के फ़ायदे कोई ,
मगर बच्चों पे कुछ इसका असर अच्छा नहीं लगता ।

तेरी शेवा-बयानी तो हमें ख़ुश आ गई लेकिन ,
तेरे भीतर छुपा जो फ़ित्नागर अच्छा नहीं लगता ।

किसी भी दर पे यूँ 'नादान' सर झुकता नहीं अपना ,
ख़ुदा के दर से हमको कोई दर अच्छा नहीं लगता ।

                                   राकेश 'नादान'

शेवा-बयानी----वाक् पटुता
फ़ित्नागर----षड़यंत्रकारी , उपद्रवी , दंगा भड़काने वाला

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